गुरु गोविंद सिंह का जीवन परिचय, जीवनी, जन्म, शिक्षा, परिवार, उपदेश, खालसा पंथ, पंज प्यारे (Guru Gobind Singh Curriculum vitae In Hindi, Wiki, Family, Education, Occasion, Career, Marriage, Wife, Marriage, Panj Pyare, Mudder, Khalsa panth ke Sthapana, Tutor Gobind Singh And Aurangzeb, Guru Gobind Singh And Mugal Frendship, Motivational Quotes, Books)
गुरु गोविंद सिंह वह है जिन्होंने सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा कर गुरु के रूप में सुशोभित किया है। इसके साथ ही गुरु गोविंद सिंह एक महान योद्धा कवि भक्तों एवं आध्यात्मिक नेता थे।
उन्होंने धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान दिया था जिसके लिए उन्हें सरबंसदानी (सर्ववंशदानी) कहा जाता है, इसके अलावा उन्हें कलगीधर, दशमेश, बंजावाले जैसे कई नामों से जाना जाता है।
गुरु गोविंद सिंह ने अपने पूरे जीवन के दौरान हमेशा लोगों को प्रेम एकता और भाईचारे का संदेश दिया है उनकी मान्यता थी कि “मनुष्य को किसी को डराना नहीं चाहिए और ना ही किसी से डरना चाहिए”।
दोस्तों आज के अपने लेख गुरु गोविंद सिंह का जीवन परिचय (Guru Gobind Singh Biography Razorsharp Hindi) में हम आपको बताएंगे कि कैसे उन्होंने अपने जीवन में संघर्षों को पार करते हुए मानव जाति के लिए एक उदाहरण पेश किया है-
नाम (Name) | गुरु गोविंद सिंह |
असली नाम (Real Name) | गोविंद राय |
अन्य नाम (Other Name) | खालसा नानक, हिंद का पीर, भारत का संत |
प्रसिद्धि (Famous for) | सिखों के दसवें गुरु और सिख खालसा सेना के संस्थापक एवं सेनापति के रूप में |
पदवी | सिखों के दसवें गुरु |
जन्म (Date Of Birth) | 22 दिसंबर 1666 |
जन्म स्थान (Birth Place) | पटना साहिब ,पटना (भारत) |
उम्र (Age) | 41 वर्ष मृत्यु के समय |
धर्म (Religion) | सिख |
जाति (Cast) | सोढ़ी खत्री |
नागरिकता (Nationality) | भारतीय |
पूर्व अधिकारी | गुरु तेग बहादुर |
उत्तराधिकारी | गुरु ग्रंथ साहिब |
वैवाहिक स्थिति (Marrital Status) | शादीशुदा |
मृत्यु (Death Date) | 7 अक्टूबर 1708 |
मृत्यु का स्थान (Death Place) | हजूर साहिब ,नांदेड़ (भारत) |
मृत्यु का कारण (Death Cause) | हत्या |
गुरु गोविंद सिंह सिखों के दसवें गुरु है जिन्होंने 1699 में सिखों में खालसा पंथ की स्थापना की थी और साथ ही सिखों से गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा था।
वह एक महान योद्धा कवि भक्तों एवं आध्यात्मिक नेता थे जिन्होंने धर्म के रास्ते पर चलते हुए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और लोगों को प्रेम, एकता एवं भाईचारे का संदेश दिया।
गुरु गोविंद सिंह का जन्म 22 दिसंबर 1666 को पटना में हुआ था उनके पिता का नाम गुरु तेग बहादुर है जो कि सिखों के नवमी गुरु थे।
उनकी माता जी का नाम श्री गुजरी चंद शुभीखी था। गुरु गोविंद सिंह अपने माता पिता की इकलौती संतान थे। उनका बचपन का नाम गोविंद राय था और वह जिस घर में पैदा हुए थे उन्होंने उसमें अपने जीवन के प्रथम 4 वर्ष बिताए हैं।
इसके पश्चात 1670 में उनका परिवार पंजाब आ गया और 1672 में उनका परिवार हिमालय के शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्की नामक स्थान पर आकर रहने लगा।
यहीं पर गुरु गोविंद की शिक्षा आरंभ हुई थी और उन्होंने फारसी संस्कृत आदि की शिक्षा ली और एक योद्धा बनने के लिए सैन्य कौशल भी सीखा।
वर्ष 1975 में उनके पिता गुरु तेग बहादुर के सामने औरंगजेब परेशान कश्मीरी पंडितों ने अपनी रक्षा करने का प्रस्ताव रखा जिसको कि उन गुरु तेग बहादुर जी ने मान लिया और अंग्रेजों की क्रूरता के खिलाफ विद्रोह किया।
जिसके बाद औरंगजेब ने मैं दिल्ली बुलाया और उन्हें इस्लाम को अपनाने के लिए कहा परंतु गुरु तेग बहादुर जी ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया जिसके कारण औरंगजेब ने क्रोधित होकर उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया और दिल्ली में सार्वजनिक रूप से उनके सिर कलम करवा दिए।
पिता की अचानक मृत्यु ने ही गुरु गोविंद सिंह को बहुत ज्यादा मजबूत बना दिया और सिख समुदाय को औरंगजेब द्वारा दिखाई गई क्रूरता के खिलाफ लड़ने के लिए दृढ़ करने लगे, उनके द्वारा लड़ी गई यह लड़ाई बुनियादी मानवाधिकारों और सिख समुदाय के गौरव की रक्षा के लिए लड़ी गई थी।
उनके पिता की मृत्यु के बाद गुरु गोविंद सिंह को 29 मार्च 1676 को बैसाखी के दिन सिखों के दसवें गुरु के रूप में मान्यता दी गई।
गुरु गोविंद सिंह ने चावल सि के गुरु के रूप में पद ग्रहण किया था वह मात्र 9 वर्ष के थे और दुनिया को कहां पता है कि 9 साल का यह बच्चा जिसकी आंखों में दृढ़ निश्चय है वह पूरी दुनिया को बदलने वाला है।
इसके बाद गुरु गोविंद सिंह पोंटा में रहने लगे जहां उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी और घुड़सवारी तीरंदाजी और अन्य प्रकार के युद्ध कौशल सीखे एवं खुद को बचाने के लिए आवश्यक बुनियादी कौशल भी सीखें।
पिता का नाम (Father’s Name) | गुरु तेग बहादुर जी |
माता का नाम (Mother’s Name) | माता गुजरी चंद्र सुभीखी |
बहन का नाम (Sister’s Name) | कोई नहीं |
भाई का नाम (Brother’s Name) | कोई नहीं |
पत्नी का नाम (Wife’s Name) | पहली पत्नी: माता जीतो दूसरी पत्नी: माता सुंदरी तीसरी पत्नी: माता साहिब देवां |
बेटी का नाम (Daughter’s Name) | कोई नहीं |
बेटों के नाम (Son’s Name) | जुझार सिंह, जोरावर सिंह एवं फतेह सिंह (पहली पत्नी से) अजीत सिंह (दूसरी पत्नी से) |
गुरु गोविंद सिंह जी की उनके जीवन कल में तीन शादियां हुई थी जिसमें से उनकी पहली शादी मात्र 10 वर्ष की उम्र दूर 21 जून 1670 को आनंदपुर से 10 किलोमीटर दूर उत्तर में बसंतगढ़ में माता जीतो के साथ हुई थी।
गुरु गोविंद सिंह जी को अपनी पहली पत्नी माता जीतो से 3 पुत्र प्राप्त हुए जिनके नाम जुझार सिंह, जोरावर सिंह एवं फतेह सिंह रखे गए।
गुरु गोविंद सिंह जी का दूसरा विवाह 17 वर्ष की उम्र में 4 अप्रैल 1684 को आनंदपुर में माता सुंदरी जी के साथ हुआ था।
शादी के बाद माता सुंदरी और गुरु गोविंद सिंह को एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम अजीत सिंह था।
गुरु गोविंद सिंह जी का तीसरा और अंतिम विवाह उनकी 33 वर्ष की उम्र में 15 अप्रैल 17 को आनंदपुर में ही माता साहिब देवां के साथ हुआ था।
उनकी कोई संतान नहीं थी लेकिन सिख धर्म में उनकी प्रभावशाली भूमिका थी गुरु गोविंद सिंह ने उन्हें खालसा की माता के रूप में घोषित किया था।
एक बार गुरु गोविंद सिंह जी ने 11 अप्रैल को 1699 को बैसाखी के दिन आनंदपुर में सभी सिखों को एकत्र होने का अनुरोध किया और एक नए पंथ खालसा पंथ की स्थापना की जो कि सिख धर्म के विधिवत् दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामूहिक रूप है।
खालसा का अर्थ होता है शुद्ध या विशेष। परंतु इसमें उन्होंने इस बात का जिक्र किया कि उन्हें 5 लोगों की बलि देनी होगी, उसके बाद गुरुजी ने सिख समुदाय के सामने पूछा की कौन है जो अपने सर का बलिदान देना चाहता है?
तभी एक स्वयंसेवक बलिदान देने के लिए सहमत हो गया और गुरु गोविंद सिंह जी उसे एक तंबू के अंदर लेकर गए और कुछ समय बाद एक खून लगी हुए तलवार के साथ वापस लौटे।
बाहर आने के बाद गुरुजी ने अपने भक्तों को वापस दोहराया जिसके बाद एक और शेखर अपना बलिदान देने के लिए सहमत हो गया और गुरुजी उन्हें भी तंबू में अपने साथ अंदर ले गए और जब बाहर निकले तो उनके हाथों में खून लगा हुआ था।
इसी प्रकार उन्होंने 5 लोगों को तंबू के अंदर ले जाकर इस प्रक्रिया को दोहराया और कुछ समय बाद गुरु गोविंद सिंह सभी के साथ वापस लौटे जिन्होंने अपना बलिदान देने के लिए कहा था। और आगे चलकर ऐसे ही गुरु गोविंद सिंह के “पंज प्यारे” कहा गया।
दरअसल गुरु गोविंद सिंह किसी को मारना नहीं चाहते थे बल्कि वह उन लोगों का चयन करना चाहते थे जो कि उनको पंथ को आगे बढ़ाने में सहायता कर सकें इसीलिए उन्होंने यह सब खेल रचाया।
वर्ष | युद्ध Platter confidentially लड़ाईयां |
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1688 | भंगानी का युद्ध |
1691 | नंदौन का युद्ध |
1696 | गुलेर का युद्ध |
1700 | आनंदपुर का पहला युद्ध |
1702 | निर्मोहगढ़ का युद्ध |
1704 | चमकौर का युद्ध |
1704 | आनंदपुर का द्वितीय युद्ध |
1704 | सरसा का युद्ध |
1705 | मुक्तसर का युद्ध |
गुरु गोविंद सिंह को अपनी तीनों पत्नियों में से दो पत्नियों से चार बेटे प्राप्त हुए थे जिनके नाम जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फतेह सिंह और अजीत सिंह थे जिन्हें ‘साहेबजादे’ के नाम से जाना जाता था।
गुरु गोविंद सिंह के चारों बेटों ने क्रूर मुगल आक्रमण कार्यों के सामने अपनी शक्ल पहचान को बनाए रखने के लिए अपने प्राणों तक की आहुति दे दी थी। उनके दो बड़े बेटे अजीत सिंह और जुझार सिंह की चकमौर के युद्ध में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए।
तो वही उनके दो बेटों जोरावर सिंह और फतेह सिंह को सरहिंद के सूबेदार वजीरा खाने 27 सितंबर 1704 को इस्लाम धर्म कबूल नहीं करने की वजह से गिरफ्तार करते हुए सरहिंद की दीवारों में जिंदा चुनवा दिया था।
इसके पश्चात उनकी माता गुजर कौर को केले के ऊंचे पूर्व से धक्का देकर शहीद कर दिया गया था यह सब को जब गुरु गोविंद सिंह जी को पता चला तब उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा लिखा।
जिसमें उन्होंने औरंगजेब को चेतावनी दी कि 13 साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है उसके पश्चात उन्होंने 8 मई 1705 में मुख्तसर नामक स्थान पर मुगलो से गुरु गोविंद सिंह जी के बीच एक भयानक युद्ध हुआ जिसमें गुरु गोविंद सिंह जी विजयी हुए।
इसके बाद वह अक्टूबर 1706 में दक्षिण की ओर चले गए तभी उन्हें समाचार मिला कि औरंगजेब की मृत्यु हो चुकी है।
अगर आप केवल अपने भविष्य के विषय सोचते रहे तो, आप अपने वर्तमान को भी खो देंगे।
मैं उन्हीं लोगों को पसंद करता हूं, जो हमेशा सच्चाई की राह पर चलते हैं।
जब आप अपने अंदर बैठे अहंकार को मिटा देंगे, तभी आप को वास्तविक शांति की प्राप्ति होगी।
इंसान से प्रेम करना ही, ईश्वर की सच्ची आस्था और भक्ति है।
जो भी कोई मुझे भगवान कहता है, वह नर्क में चला जाए.
सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़िया नाते मैं बाज तुड़ाऊं, तब गुरु गोविंद सिंह नाम कहाऊं ।
निर्बल पर कभी अपनी तलवार चलाने के लिए उतावले ना होइए वरना विधाता आपका ही खून बहायेगा।
हर कोई उसे सच्चे गुरु की प्रशंसा और जयकार करें, जो हमें भगवान की भक्ति के खजाने तक ले गया है।
गुरु गोविंद सिंह द्वारा 8 मई 17 को 5 को मुक्तसर नाम की जगह पर मुगलों के साथ एक भयानक युद्ध लड़ा गया जिसमें कि उन्होंने विजय प्राप्त की।
इसके बाद जब गुरु गोविंद सिंह वर्ष 1706 में भारत के दक्षिण में चले गए जहां पर उनको मालूम चला कि उनके पिता का हत्यारा एवं मुगल सम्राट औरंगजेब की मृत्यु हो चुकी है।
मुगल सम्राट की मृत्यु के पश्चात उनके बेटों में ही गद्दी को लेकर आपस में युद्ध छिड़ गया और वह एक दूसरे पर हमला करते हुए गति को प्राप्त करने की कोशिश करने लगे।
इन्हें योद्धाओं में गुरु गोविंद सिंह जी ने भी औरंगजेब के बेटे बहादुर शाह का साथ दिया और उसे बादशाह बनने में मदद की।
इस प्रकार औरंगजेब की मृत्यु के बाद गुरु गोविंद सिंह मुगलों के विरोधी नहीं रहे थे और मुगल सम्राट बहादुरशाह ने ही उन्हें हिंद का पीर या भारत का संत नाम दिया था।
जब औरंगजेब की मृत्यु हो गई तब गुरु गोविंद सिंह के मुगलों के साथ संबंध अत्यंत मधुर हो गए थे और इन संबंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीर खान घबरा गया था और उसने दो पठान युवाओं को गुरुजी के पीछे लगा दिया।
और उन दोनों से कहा कि वह गुरु जी की दिनचर्या पर नजर रखें और मौका मिलते ही उन्हें मार दें ऐसा कहा जाता है कि उन दोनों में से एक अफगान ने समय पाते ही गुरुजी की पीठ में छुरा घोंप दिया।
इसकी वजह से 7 अक्टूबर 1708 में महाराष्ट्र के नांदेड़ में मात्र 42 वर्ष की उम्र में ही गुरु गोविंद सिंह ने अपने शरीर को त्याग दिया था और वह पंचतत्व में विलीन हो गए।
गुरु गोविंद सिंह का जन्म 22 दिसंबर 1666 को पटना में हुआ था उनके पिता का नाम गुरु तेग बहादुर है जो कि सिखों के नवमी गुरु थे।
गुरु गोविंद सिंह का जन्म 22 दिसंबर 1666 को पटना में हुआ था उनके पिता का नाम गुरु तेग बहादुर है जो कि सिखों के नवमी गुरु थे।
पहली पत्नी: माता जीतो दूसरी पत्नी: माता सुंदरी तीसरी पत्नी: माता साहिब देवां
नवाब वजीर खान ने उसने दो पठान युवाओं को गुरुजी के पीछे लगा दिया,उन दोनों में से एक अफगान ने समय पाते ही गुरुजी की पीठ में छुरा घोंप दिया। इस प्रकार 7 अक्टूबर 1708 में महाराष्ट्र के नांदेड़ में मात्र 42 वर्ष की उम्र में ही गुरु गोविंद सिंह ने अपने शरीर को त्याग दिया था और वह पंचतत्व में विलीन हो गए।
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निष्कर्ष
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